Archive for June, 2012

June 17, 2012

ग़मों का इक सिलिसिला है
बाकी थोड़ा सा हौसला है
हाथों के ओक में चश्मे का पानी
गिरता है ठहरता कहाँ है
बहुत कुछ हमको मिला है
जो नहीं मिला उसका मगर गिला है

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बंद हो गए हैं हम भी आकर
इक कागज़ के डब्बे में
छत गिरने का यहाँ कोई डर नहीं
बड़ी महफूज़ जगह है ये
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पकड़े रहना चाहता था मैं नींद की चादर
जब तक कोई सूरज निकलता नहीं मेरे क्षितिज पे
दिन यूँ कतरा कतरा मेरी चादर खींचता रहा
शाम को उठ पड़ा की नंगा हो चूका था
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दर्द को मेरे खुद से इश्क हो चला है
ये आदत शायद मुझसे ही सीखी है
दर्द का इलाज़ इस दर्द के पार है
दर्द की इन्तहा शायद अभी बाकी है
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मैं दुविधा में नहीं हूँ
मैं ही दुविधा हूँ
में वो नहीं जो उलझ गया है
में उलझा ही हूँ
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मैं दोस्तों की बाँहों में आ गया हूँ
खुशगवार पनाहों में आ गया हूँ
बड़े दिनों से धूप में सिक रहा था
लगता है कि छाँव में आ गया हूँ
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क्या तुमने कभी घर की अपने दीवारें हैं तोड़ी?
क्या तुमने कभी ईंट से पत्थर टकराए हैं?
फिर क्या आ आकर मेरे पास रिरियाते हो ये
क्यूँ नहीं पल में काम की बात ये बताते हो
की तुम हो गधे के पूत और तुम करते खुदाई हो
की हो तुम लड़वंसी और खुद को कहते खुदाई हो

June 17, 2012

अभी हलकी नींद में था
तकिये को सीने से लगाये
खुद से, ‘थोडा और सो ले’ कह रहा था
क्रिकेट खेलने के लिए आऊँगा
ऐसा कह रखा था, करना बाकी था
दिन गरमी का था, मौसम बेसर्द था
दिन किसी का भी हो, रात अपनी होती है
कई दिन हो गए थे, ठीक से सोये हुए
ऐसा लगता था कभी सो भी न पाउँगा
आज सो पा रहा था
एक अच्छी नींद से भी अच्छी कोई चीज़ है?
कुछ ख्याल आ आ कर तंग कर रहे थे
मुझे पता नहीं है शायद
पर अब भी मेरे घर में
चुपके से कोई रहता है
ऐसा वो मुझसे कह रहे थे
मैं लिखने को उठना न चाहता था
ये मेरे अलफ़ाज़ नहीं हैं
इनमें मेरे अहसास नहीं है
कल रात गुलज़ार साब को चख लिया था
कभी कभी समझ आते थे
ज्यादातर ऊपर से निकल जाते थे
ये उनके स्वाद का आफ्टर अफेक्ट है
ऐसा मैं खुद से कह रहा था
क्रिकेट खेलने वाले वापस आ चुके थे
लाइट जला दी उन्होंने
अन्दर आने वाला जिसे मैं नहीं जनता था
एक जानने वाले का हमशकल था
वो शायद मेरे चहरे पे उड़ रहे भावों को खूब जनता था
मैं वो नहीं जो आप सोच रहे हो
मैं उसका जुड़वा भाई हूँ, वो बाहर है
वो सचमुच एक जैसे थे
मैं लिखने बैठ गया
और चारा भी क्या था
और लिखते लिखते मैंने जाना
की सचमुच, मेरे घर में
बहुत से लोग रहते हैं
मुझे उनसे मिलना नहीं है
उन्हें मिल के कुछ करना नहीं है
लेकिन वो रहते हैं
मेरे आस पास
कभी ख्यालों में
कभी दरवाज़े के जरा पीछे
हलके से कुण्डी खटखटाते हुए
वो मुझे बुलाते हैं
नींद से जागते हैं
मुझे जगाकर
अनमना सा पाकर
बड़ी जोर से खिलखिलाते हैं
जब दरवाज़ा खोल मैं बाहर जाता हूँ
तो वो शोर मचारे घर से निकल जाते हैं
मैं उनको जाता देखता रहता हूँ
फ्रिज का पानी पीते खुद से कहता हूँ
आज दिन में बाहर चलूँगा में
कहीं न कहीं किसी न किसी मीटिंग में
इनमें से किसी से जरुर मिलूँगा में
मिल कर इनसे क्या कहूँगा मैं?
ये सोचने को फिर से लेट जाता हूँ मैं

June 17, 2012

मेरे मुंह पे, मेरी जबां पे टेप लगा दोगे
मुझे रोक कर रखे, कुछ ऐसी सजा दोगे
मैं भी साथ होंगा तेरे, मुझे भी ये चाहिए
ये मीठा घुलने वाला ज़हर मुझे भी चाहिए
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अन्दर तक मेरे कुछ ऐसा भरा हुआ है
जलता हुआ या मुझे ख़ाक में ही पाओगे
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वो ज़माने से जा मिल
खुद से दूर सरकने लगा
लायक किसी के कभी न था
काबिल अब खुद के भी न रहा
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ज़माने से जरा दूर
मद्धिम सी तन्हाई में
आते जाते ख्यालों के बीच
रेत पर लकीर बनाते
यूँ ही, कभी कभी सर उठाओगे
कोई पूछेगा क्या हुआ
तो बस सर हलके से हिलाओगे
कभी उठ कर कुछ दूर निकल जाओगे
वो ऊँची इमारतें, उनमें रहने वाले लोग
जो सुबह कुत्ता ले कर आते हैं
उनके ऊपर, उनकी खिड़कियों पे
दालान में, दरवाज़े के पास
हर तरफ कहीं कोई खड़ा होगा
कुछ दौड़ लगाके कोई और मुकाम
वहां से भी वोही बदल, वोही हवा
वोही दम दम घुटता घुमड़ता खुलता आसमान
कुछ है जो इन सब के बीच नहीं है
कुछ है जो हाथ में गिरफ्त है
कुछ है जो हाथ नहीं आता
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June 15, 2012

बस थोड़ा सा रहता है …

जल चुका है सब ब सब
बस थोड़ा सा रहता है
पस्त हैं सब हौसले
बस थोड़ा सा रहता है
चल चुका है तू बहुत
बस थोड़ा सा रहता है
पार लिए बड़े फासले
बस थोड़ा सा रहता है
मत तोड़ तू खुद को
अब मत छोड़ तू खुद को
जाने कौन है जो हर घड़ी
ये कहता ही रहता है
चल चुका है तू बहुत
बस थोड़ा सा रहता है
कह चुका हूँ मैं बहुत
बस थोड़ा सा रहता है
इसी थोड़े थोड़े में देखो
कितना कुछ है सिमट आया
धरती नाप चुकी है
और गगन भी है भर आया
सब कुछ सिमट चुका है बस
थोड़ा सा रहता है
चल ले जरा कुछ और दूर
बस थोड़ा सा रहता है
जाने कौन है जो हर घड़ी
ये कहता ही रहता है
उस पार जब कुछ भी नहीं
जाना तुझे कहीं है ही नहीं
फिर भी तू बस ये सोच
चलता ही रहता है
मिल जाये शायद कोई नायाब नूर
की यूँ ही आ गया हूँ बहुत दूर
पर अब भी नहीं हूँ सीख पाया
की खुद से न कहूँ ये हर घड़ी
की चल चुका है तू बहुत
बस थोड़ा ही रहता है
जाने कौन है जो हर घड़ी
ये कहता ही रहता है
बस थोड़ा ही रहता है