हर रहगुजर से गुजरा, अनजानों की तरह
अपनों में रहा मैं अक्सर बेगानों की तरह
यूँ तो सजाया गया हूँ मैं भी कई बार
पर पेश हुआ हरदम बस नजरानों की तरह
ये जो अपनी बेपरवाह तपिश है
धीमी आंच पे रखी अंगीठी सी है
सुलगती रहती है उबलती कभी नहीं
महसूस होती है दिखती कभी नहीं
कयास में यूँ ही कई दौर गुजार दिए
दिल खुश्क हो चला इसके इंतज़ार में
दिल के अरमानों को कई नाम दिए
मालूम हुआ कि खुद से रंजिश ही है