एक दिन यूँ ही अनजाने में
देखा था खिड़की से बाहर
खुलती थी एक खिड़की आसमानों में
झांकता था कोई नीचे सर मानों में
कूदा था वो रख पैर पायदान पे
बादल हट गए थे रास्ते से
रुका कुछ देर बीच में कहीं
आ खड़ा हुआ वह एक पेड़ से कुछ ऊपर
प्रसन्नचित सा, खुश सा, वह झांकता था नीचे
निहारता था जो भी था कुछ नीचे
एक भौंकता कुत्ता कुछ सोते लोग
पेड़ की छाँव में लेटे कुछ लोग
खड़े थे बाग़-बगीचे, खड़े थे ऑटो और ट्रक
उतरा कुछ और नीचे देखता कौतुहल से
भौंकते कुत्तों ने किया उसका स्वागत
खड़ा हो चला मैं भी देखता उसको खिड़की से
था सर बालहीन थी आंखें कुछ कंजी
पहना था कुछ अजीब, एक पतली सी नीली गंजी
कुछ लोग और जग उठे थे, कुछ बटुर गए थे
बटोर कर सब साथ उसको पत्थर मारते थे
कुत्ते मगर चुप थे, गायें थी रंभाती
उसकी आँखें देखतीं इधर-उधर फिर रुक जातीं
धीरे से वो उठा थोड़ा और ऊपर
टॉर्च से फेंका मैंने रौशनी पुंज उसके ऊपर
आँखों में थी उसके खोज की उत्सुकता
मन में था एक अनसुलझा असमझा रहस्य
घुमा दी टॉर्च मैंने अपने चहरे के ऊपर
देख कर मुझको जैसे मिला उसे अपने प्रश्न का उत्तर
थी वही खोज आँखों में वही रहस्य दिल के अंदर
उड़ चला वो दूर पा और दे अपना मूल मंतर