Archive for March, 2012

March 30, 2012

देर हो चली है…

देर हो चली है, शायद देर हो चली है

सोये थे जिसे बिस्तर समझ,

वो मय्यत उठ चली है

अरे रुको, जरा ठहरो, आह भर लेने दो

कुछ लकड़ियाँ यहाँ से भी ले चलो

ये मेरे यार की गली है

सुना है एक घर ऐसा भी है जिसमें कोई दरवाज़ा ही नहीं है

ढूढने वाला दरवाज़ा ढूँढता रहता है, कभी खटखटाता नहीं है

इंतज़ार में मेरे रहता है वहां वही जिसे कहता ज़माना ‘अली’ है

ले चलो जल्दी, कहीं देर न हो जाये, अब वोही तो मेरा ‘वली’ है

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क्या मालूम है तुम्हें
क्या हो गया है मुझे
जो काँटा उगा भी न था
वो चुभने लगा है मुझे

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March 29, 2012

सब बड़े, मैं छोटा…

बन गए हैं सब बड़े, मैं छोटा रह गया
हो गया सबका काम, मेरा होता रह गया
लोगों ने दांत मांज लिए, नहा लिए खा लिए
वो ऑफिस चले गए, मैं गांड धोता रह गया

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such a sleepless night it is
such a hopeless night it is
why to get up, where to go
such a pointless life it is

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कितना भटका रहा हूँ मैं
कितना सहमा रहा हूँ मैं
झूठ को दुनिया के सच मानके
सच में खुद के कितना दुबका रहा हूँ मैं
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हज़ारों चिराग मेरे पीछे हैं हज़ारों मेरे आगे होंगे
बुझ के फिर जलने को क्या वो भी युहीं जलते होंगे?
अपने लिए अब हम, जी के क्या करेंगे
होश यूँ ही जब गुम हैं, शराब पी के क्या करेंगे
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March 23, 2012

शीशा …

चलो घास खाते हैं
चलो चिलम उड़ाते हैं
थक के चूर हो चुके हैं
चलो गंध मचाते हैं

आसमान गीला गीला है
ज़मीन भी नम है
नमक बहोत हो गया है
शरबत में पानी ही कम है

देखने को शक्लें हैं
फोड़ने को फुलझड़ियाँ
नींद से जगाने को मुझे
हैं हँसी की लम्बी लड़ियाँ

सब कुछ जैसे भर गया है
पर लगता है कुछ कम है
जिनसे दिल बहलाते हैं
उन्हीं बातों का ग़म है

बातें बहुत हैं मेरे पास
लेकिन अहसास नहीं है
पी तो जाऊं प्याला विष का ही
पर क्या करूँ, प्यास नहीं है

तुम समझ लो तो मुझे भी समझाना
जानता हूँ पर जिसका आभास नहीं है
वो शीशा जो सच की शक्ल दिखाता था
टूट कर पैर में जा चुभा है हाथ नहीं है