साध प्राण प्रत्यंचा
शिथिल हो उठे देह धनुष पर
कर कर्म बाण संधान
है संकट विकराल
तिमिर घन है छाया
प्रतिपल प्रतिक्षण
प्रतिबिंबित होती
कुंठित कुत्सित इसकी छाया
बैठी ह्रदय के बीच कहीं पर
काली कुरूप कोई कुछाया
बरबस फिसली जाती है
रूप बदल ज्यों मायावी सा
हर वार से बच जाती है
जला स्वयं को आहुति दे
जल स्वयम, स्वयम ही दीप्य हो
मत कर मन पर धीरज का लेप
हो अधीर जला अपने तन मन को
मत मान लकीरें खिचीं हुयी
हो राम चाहे लक्ष्मण रेखा
कर नोक नुकीली पैनी कर
घुसा बाण अपने ही अंदर
रिसा कलुषित रक्त
कर रिक्त स्वयम को स्याह से
वो उगती हैं सूरज की किरणे
वेगवान रथ पर आते सूर्य देव
उदय नहीं होना चाहें
स्वप्न नहीं किसको प्यारे
उगते जब व्यथित करें
रक्त रंजित मानव की पुकारें
है हाथ बाण काँधे धनुष
रिसता रक्त करे शरीर उदीप्यमान
तपती जलती किरणे
भरा तेजस्वी अभिमान
उनसे टकराने का संबल दे
भुरभुरे मानव को उसका
साहस औ स्वाभिमान
साहस औ स्वाभिमान…
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