जाने किस डगर को चले थे, जाने कौन नगर पहुंचे
जाने किसको ढूंढ़ रहे थे, जाने किसके दर पे ठहरे
अनजानी सी शाम सुहानी, धूमिल-मध्धिम सी कुछ थी
यौवन में कुछ चूर से थे, बचपन सा कुछ ढूंढ रहे थे
पग थमते थे नज़र नहीं पर, बदन यहीं था मन दूर कहीं पर
छाया को चित पकर रहा था, उसको असली रूप समझकर
खुद को छलते और मचलते, ऐसा ही कुछ खेल रहे थे
कुछ कुछ तो हम जीत रहे थे, लेकिन सब कुछ हार चुके थे
तिमिर विकट था, मन असमंजस में, रह पे एक बिन मोड़ खड़े थे
चलना था पर रुके हुए थे, कारण सा कुछ ढूंढ रहे थे
व्यर्थ गया यूँ समय बहुत सा, चलते चलते ऊब चुके थे
मन बोला चल घर चलते हैं, उसका पता पर भूल चुके थे
यौवन में कुछ चूर से थे, बचपन सा कुछ ढूंढ रहे थे…..
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